साहित्य शब्द संस्कृत के ‘सहित’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है – साथ होना या जोड़ा हुआ। यानी साहित्य वह है, जो समाज और मानव जीवन के साथ जुड़ा हो और उसके हित में काम करे। सरल शब्दों में कहें तो, साहित्य वह रचना है जिसमें जीवन की भावनाएँ, विचार और अनुभव सुंदर ढंग से भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त हों।

साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह समाज को दिशा देने वाला दर्पण भी है। इसमें न केवल हृदय की भावनाएँ व्यक्त होती हैं, बल्कि समाज, संस्कृति और जीवन के सत्य भी परिलक्षित होते हैं। इसीलिए साहित्य को ‘जीवन की आलोचना’ और ‘समाज का दर्पण’ कहा गया है।

भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने साहित्य को “समाज का दर्पण” बताया। डॉ. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार “साहित्य जीवन की आलोचना है”। वहीं महावीर प्रसाद द्विवेदी मानते हैं कि “साहित्य वह है, जो मनुष्य के हृदय को उदात्त भावनाओं की ओर ले जाए।” इन परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि जीवन और समाज का गहरा प्रतिबिंब है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कहना है कि “साहित्य जीवन की सच्चाई और कल्पना का सुंदर सम्मिश्रण है।” यानी साहित्य में यथार्थ और कल्पना दोनों का संतुलित रूप मिलता है। यही कारण है कि साहित्य पढ़ने से मनुष्य का चिंतन गहरा होता है और उसकी संवेदनाएँ प्रखर होती हैं।

निष्कर्षतः, साहित्य वह विधा है जो जीवन के सुख-दुख, प्रेम-द्वेष, संघर्ष-आशा और अनुभव-कल्पना को अभिव्यक्त करती है। यह समाज को नई दिशा देने वाला साधन है। इसलिए साहित्य को मानव सभ्यता की आत्मा और संस्कृति का दर्पण कहा जा सकता है।